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रामचर्चा--मुंशी प्रेमचंद


आक्रमण की तैयारी

हनुमान ने रातोंरात समुद्र को पार किया और अपने साथियों से जा मिले। यह बेचारे घबरा रहे थे कि न जाने हनुमान पर क्या विपत्ति आयी। अब तक नहीं लौटे। अब हम लोग सुगरीव को क्या मुंह दिखावेंगे। रामचन्द्र के सामने कैसे जायेंगे। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि यहीं डूब मरें। इतने ही में हनुमान जा पहुंचे। उन्हें देखते ही सबके-सब खुशी से उछलने लगे। दौड़दौड़कर उनसे गले मिले और पूछने लगे—कहो भाई, क्या कर आये ? सीता जी का कुछ पता चला? रावण से कुछ बातचीत हुई? हम लोग तो बहुत विकल थे।
हनुमान ने लंका का सारा हाल कह सुनाया। रावण के महल में जाना, अशोक के वन में सीता जी के दर्शन पाना, वाटिका को उजाड़ना, राक्षसों को मारना, मेघनाद के हाथों गिरतार होना, फिर लंका को जलाना, सारी बातें विस्तार से वर्णन कीं। सब ने हनुमान की वीरता और कौशल को सराहा और गाबजाकर सोये। मुंहअंधेरे किष्किंधापुरी को रवाना हुए। सैकड़ों कोसों की यात्रा थी। पर ये लोग अपनी सफलता पर इतने परसन्न थे कि न दिन को आराम करते, न रात को सोते। खानेपीने की किसी को सुध न थी। शीघर रामचन्द्र जी के पास पहुंचकर यह शुभ समाचार सुनाने के लिए अधीर हो रहे थे। आखिर कई दिनों के बाद किष्किन्धा पहाड़ दिखायी दिया। उसी के निकट राजा सुगरीव का एक बाग था। उसका नाम मधुवन था। उसमें बहुतसी शहद की मक्खियां पली थीं। सुगरीव को जब शहद की जरूरत पड़ती तो उसी बाग से लेता था।
जब यह लोग मधुवन के पास पहुंचे तो शहद के छत्ते को देखकर उनकी लार टपक पड़ी। बेचारों ने कई दिन से खाना नहीं खाया था। तुरन्त बाग में घुस गये और शहद पीना आरम्भ कर दिया। बाग़ के मालियों ने मना किया तो उन्हें खूब पीटा। शहद की लूट मच गयी। सुगरीव को जब समाचार मिला कि हनुमान, अंगद, जामवंत इत्यादि मधुवन में लूट मचाये हुए हैं, तो समझ गया कि यह लोग सफल होकर लौटे हैं। असफल लौटते तो यह शरारत कब सूझती। तुरन्त उनकी अगवानी करने चल खड़ा हुआ। इन लोगों ने उसे आते देखा तो और भी उधम मचाना शुरू किया।
सुगरीव ने हंसकर कहा—मालूम होता है, तुम लोगों ने कईकई दिन से मारे खुशी के खाना नहीं खाया है। आओ, तुम्हें गले लगा लूं।
जब सब लोग सुगरीव से गले मिल चुके, तो हनुमान ने लंका का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। सुगरीव खुशी से फूला न समाया। उसी समय उन लोगों को साथ लेकर रामचन्द्र के पास पहुंचा। रामचन्द्र भी उनकी भावभंगी से ताड़ गये कि यह लोग सीता जी का पता लगा लाये। इधर कई दिनों से दोनों भाई बहुत निराश हो रहे थे। इन लोगों को देखकर आशा की खेती हरी हो गयी।
रामचन्द्र ने पूछा—कहो; क्या समाचार लाये? सीता जी कहां हैं? उनका क्या हाल है?
हनुमान ने विनोद करके कहा—महाराज, कुछ इनाम दिलवाइये तो कहूं।
राम—धन्यवाद के सिवा मेरे पास और क्या है जो तुम्हें दूं। जब तक जीवित रहूंगा, तुम्हारा उपकार मानूंगा।
हनुमान—वायदा कीजिए कि मुझे कभी अपने चरणों से विलग न कीजियेगा।
राम—वाह! यह तो मेरे ही लाभ की बात है। तुम जैसे निष्ठावान मित्र किसको सुलभ होते हैं! हम और तुम सदैव साथ रहें, इससे ब़कर मेरे लिए परसन्नता की बात और क्या हो सकती है? सीता जी क्या लंका में हैं?
हनुमान—हां महाराज, लंका के अत्याचारी राजा रावण ने उन्हें एक बाग में कैद कर रखा है और नाना परकार के कष्ट दे रहा है। कभी धमकाता है, कभी फुसलाता है; किन्तु वह उसकी तनिक भी परवाह नहीं करतीं। जब मैंने आपकी अंगूठी दी, तो उसे कलेजे से लगा लिया और देर तक रोती रहीं। चलते समय मुझसे कहा कि पराणनाथ से कहना कि शीघर मुझे इस कैद से मुक्त करें, क्योंकि अब मुझमें अधिक सहने का बल नहीं। यह कहकर हनुमान ने सीता जी की वेणी रामचन्द्र के हाथ में रख दी।
रामचन्द्र ने इस वेणी को देखा तो बरबस उनकी आंखों से आंसू जारी हो गये। उसे बारबार चूमा और आंखों से लगाया। फिर बड़ी देर तक सीता जी ही के सम्बन्ध में बातें पूछते रहे। इन बातों से उनका जी ही न भरता था। वह कैसे कपड़े पहने हुए थीं ? बहुत दुबली तो नहीं हो गयी हैं? बहुत रोया तो नहीं करतीं? हनुमान जी परत्येक बात का उत्तर देते जाते थे और मन में सोचते थे, इन स्त्री और पुरुष में कितना परेम है!
थोड़ी देर तक कुछ सोचने के बाद रामचन्द्र ने सुगरीव से कहा—अब आक्रमण करने में देर न करनी चाहिये। तुम अपनी सेना को कब तैयार कर सकोगे ?
सुगरीव ने कहा—महाराज ? मेरी सेना तो पहले से ही तैयार है, केवल आपके आदेश की देर है।
राम—युद्ध के सिवा और कोई चारा नहीं है।
सुगरीव—ईश्वर ने चाहा तो हमारी जीत होगी।
राम—औचित्य की सदैव जीत होती है।

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